जनजातीय समाज के हितों की रक्षक - बाबा कार्तिक उरांव

 

बाबा कार्तिक उरांव जनजातीय समाज के अधिकारों की लडाई के अग्रदूत थे, उन्हें जनजातीय समाज का रक्षक कहा जाता है। बहुमुखी प्रतिभा के धनी बाबा कार्तिक उरांव जीवन पर्यंत जनजातीय समाज के हितों की रक्षा एवं संविधान प्रदत्त अधिकारों को लेकर संघर्षशील रहे। स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात जनजातीय समाज जिस आवाज को ढूंढ रहे थे, डॉ. कार्तिक उरांव न केवल उनकी आवाज बने बल्कि संपूर्ण समाज के शैक्षणिक, सांस्कृतिक उत्थान के साथ सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने के लिए अथक प्रयास किए। उन्होंने जनजातीय समाज के साथ हो रहे धोखे का उजागर किया और समाज के हितों की रक्षा के लिए लिए सड़क से लेकर संसद तक संघर्ष किया। उनका मानना था कि मतांतरित हुए जनजातीय लोग, जो अपनी संस्कृति व परंपरा से कट कर विदेशी संस्कृति अपना लेते हैं ऐसे में उन्हें आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिए।  

जनजातीय समाज की पीड़ा को समझने वाले झारखंड (तत्कालीन बिहार) के अनमोल रत्न डॉ. कार्तिक उरांव पहले ऐसे राजनेता थे, जिनके पास अभियांत्रिकी (इंजीनियरिंग) की नौ डिग्रियां थीं। बाबा कार्तिक उरांव का जन्म झारखंड के गुमला जिले के लिटाटोली में 29 अक्टूबर 1924 को हुआ था। बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा के धनी श्री उरांव ने अभियांत्रिकी के क्षेत्र में प्रसिद्धि प्राप्त कर देश का नाम रौशन किया। उच्च शिक्षा के लिए वे इंग्लैण्ड गए। अत्यंत सम्पन्न जीवन का भविष्य होते हुए भी उन्होंने समाज की पीड़ा को समझा और सार्वजनिक जीवन में जनजाति समाज के दुःखों को दूर करने के लिए राजनीति में प्रवेश किया। 1967 में वे लोहरदगा से लोकसभा के लिए चुने गए। केन्द्र सरकार में मंत्री भी रहे। जन प्रतिनिधि के रुप में कार्य करने के दौरान उन्होंने जनजातीय समाज की समस्याओं को काफी निकट से देखा। चर्च व मिशनरी संस्थाओं द्वारा भोले भाले जनजातीय लोगों का मतांतरण ने उन्हें परेशान किया। उन्होने इस बात को भी निकट से देखा कि  कैसे जनजातीय समाज के मतांतरित लोग आरक्षण का लाभ ले रहे हैं तथा इससे  जनजातीय मूल समाज के लोगों को अपने अधिकारों से वंचित होना पड रहा है। जनजातीय समाज के लोगों के साथ हो रहे इस अन्याय को लेकर वह दुःखी हो गए।

संसद में रहते हुए उन्होंने लगातार जनजातियों के हित में प्रखर आवाज उठाई और उन्हीं के प्रयत्नों से संसद द्वारा 1968-69 में अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के संदर्भ में एक संयुक्त संसदीय समिति का गठन किया गया और उसकी अनुशंसाओं के आधार पर अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आदेश (संशोधन) विधेयक 1969 संसद में प्रस्तुत किया गया। स्व. कार्तिक बाबू का यह 20 वर्ष का अनुभव था कि मतांतरित जनजाति सदस्यों द्वारा सारी संवैधानिक सुविधाएं हड़प लिये जाने के कारण वास्तविक जनजातियों के लिये यह 20 वर्ष की अवधि एक काली रात के समान है और इसी काली रात के अंधेरे से निकलकर जनजाति समाज को अपने अधिकारों और सुविधाओं को प्राप्त कर नया सवेरा लाना पड़ेगा।

बाबा कार्तिक उरांव ने अध्ययन के अनुसार भारत के जनजाति समाज की परिस्थिति का चित्रण तीन भागों में किया। पहला भाग भारतीय संविधान के लागू होने के पूर्व का काल अर्थात 1950 के पूर्व का काल। दूसरा भाग संविधान लागू होने के पश्चात अर्थात 1950 से आज तक का काल और तीसरा भाग जनजातीय समाज के आने वाले कल की परिस्थिति। संविधान में अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति दोनों वर्गों के लोगों के लिए आरक्षण का प्रावधान है। अनुसूचित जाति वर्ग के लोगों के साथ समाजिक भेदभाव का शिकार होने के कारण आरक्षण की सुविधा प्रदान किये जाने की व्यवस्था है। इसी तरह अनुसूचित जनजाति वर्ग के लोगों की विशेष रीति-रिवाज, संस्कृति व परंपरा को बचाये रखने के लिए उन्हें भी आरक्षण का लाभ दिये जाने का प्रावधान है। यदि अनुसूचित जाति वर्ग का कोई व्यक्ति मतांतरित हो जाता है तो उसे आरक्षण का लाभ नहीं मिल सकता। इस बात का प्रावधान संविधान में है। लेकिन यदि कोई अनुसूचित जनजाति वर्ग का व्यक्ति मतांतरित हो जाता है तो उसे आरक्षण का लाभ मिलता रहता है। वास्तव में इसे संविधान की विसंगति ही कही जाएगी। जनजातीय समाज में सभी रीति रिवाज, सामाजिक व्यवस्था एवं पारंपारिक उत्सव आदि अपने आराध्य देवी देवता एवं देव स्थान के प्रति आस्था व विश्वास के प्रति आधारित होते हैं। दुर्भाग्य की बात यह है कि कुछ मतांतरित लोग अपनी संस्कृति, आस्था, परंपरा को त्याग कर ईसाई या मुसलमान हो गये हैं, इन सुविधाओं का 80 प्रतिशत लाभ मूल जनजाति समाज से छिन रहे हैं। डॉ. कार्तिक उरांव ने इस बात को भलीभांति अनुभव किया। इस बात ने उन्हें काफी व्यथित कर दिया। उनका दुःख पूरे भारत के जनजातीय समाज का दुःख था। पूरे भारत के जनजातीय समाज द्वारा झेले जा रहे इस अन्याय का उन्होंने विरोध किया। संविधान की इस भयानक विसंगति को लेकर देश में एक बडी बहस खडी की। डॉ. कार्तिक उरांव ने 10 नवंबर 1970 को 348 संसद सदस्यों (322 लोकसभा से और 26 राज्यसभा से) के हस्ताक्षरयुक्त एक ज्ञापन तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को सौंपा जिसमें संयुक्त संसदीय समिति की उक्त संस्तुति को स्वीकार करने की मांग की गई, परंतु सरकार इस विषय पर बहस कराने का साहस नहीं दिखा पाई। उसके पश्चात 16 नवंबर 1970 को लोकसभा में बहस शुरू हो गई और 17 नवंबर 1970 को भारत सरकार की ओर से एक संशोधन पेश किया गया कि विधेयक में से संयुक्त संसदीय समिति की उस संस्तुति को हटा लिया जाय। यह पूरे जनजातीय समाज के हितों पर भयंकर वज्राघात था। इस पर भी कार्तिक बाबू ने हार नहीं मानी और 24 नवंबर 1970 को लोकसभा में जोरदार बहस करते हुए संयुक्त संसदीय समिति की संस्तुति को मंजूर करने की पुरजोर मांग की। वे इतने 'भावुक हो गए कि उन्होंने सरकार से कहा कि या तो आप इस संयुक्त संसदीय समिति की संस्तुति को वापस लेने की बात को हटा दें या मुझे इस दुनिया से हटा दें। इस पर सभी संसद सदस्यों ने संयुक्त संसदीय समिति की संस्तुति का साथ दिया। ऐसी परिस्थिति में सरकार ने बहस को स्थगित कर दिया और आश्वासन दिया कि बहस उसी सत्र के अंत में की जाएगी। परंतु दुर्भाग्य से ऐसा न हो सका क्योंकि 27 दिसंबर 1970 को लोकसभा भंग हो गई और इसी के साथ जनजातीय समाज के उत्थान और कल्याण का और उन पर हो रहे भीषण अन्याय को दूर करने का जबरदस्त अवसर चला गया। यदि वह संस्तुति मंजूर हो जाती और संविधान में जनजातियों की परिभाषा में ईसाई व इस्लाम में मतांतरित लोगों का जनजातीय स्टेट्स निरस्त हो जाता तो अपनी संस्कृति और पहचान की रक्षा करने वाला स्वाभिमानी और देशभक्त जनजातीय समाज इस अन्याय से बच जाता। आज पांच दशक से अधिक समय बीत जाने के बाद भी कोई कार्रवाई नहीं हुई है। आज भी यह अन्याय लगातार जारी है। बाबा कार्तिक उरांव आज नहीं हैं लेकिन उनका दर्द यानी पूरे जनजातीय समाज का दर्द वैसे का वैसा बना हुआ है। 

 

(लेखक ‘राष्ट्रीय छात्रशक्ति’ पत्रिका के सह संपादक हैं एवं जनजातीय विषयों पर इनका विशेष अध्ययन है।)