सामाजिक समरसता: हमारी भूमिका और व्यवहार

अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के सभी कार्यकर्ता भारत-रत्न पू. डॉ. बाबा साहेब आंबेडकर जी के महापरिनिर्वाण के दिन को “सामाजिक समरसता दिवस” इस नाम से संपूर्ण देश में विभिन्न स्तर पर संगोष्ठी, संवाद आदि कार्यक्रमों के माध्यम से स्मरण करते हैं। सामाजिक समरसता के निमित्त आयोजित यह कार्यक्रम हमारी इस विषय को लेकर प्रतिबद्धता है तथा यह केवल बोलने का नहीं अपितु करणीय विषय है। आसेतु हिमाचल यह एक राष्ट्र है और इसमें रहने वाले हम सभी इसके अंगभूत घटक हैं, यह हमारी मान्यता है। जो सभ्यता “एकोऽहं बहुस्यामः”, “वयम् अमृतस्य पुत्राः”, “सर्वे भवन्तु सुखिनः”, ऐसे मंत्रों को जन्म देती है, वहां जन्म के आधार पर समाज को जातियों में बाँटना और भेदभावपूर्ण व्यवहार करना यह एक लांछन है। हमें कोई नकारने की भावना न रखते हुए इसे स्वीकारना होगा कि जातिगत विषमता आज भी भारत में कई स्थानों पर व्यवहार में है। इसका उन्मूलन कैसे हो इस पर भारत की छात्रशक्ति और युवाशक्ति को सोचना चाहिए। “हम सब भारत माता के सूत, आपस में भाई-भाई ..” यह केवल गीत की पंक्ति नहीं हमारा आछ-विचार का संगठन सूत्र होना चाहिए। अपने व्यक्तिगत जीवन में, पारिवारिक जीवन में तथा व्यावसायिक एवं सामाजिक जीवन में हम सभी ने सामाजिक समता और समरसता पूर्ण व्यवहार का पालन करना चाहिए। हमारे अंतरंग में एक ही चैतन्य है, उसको पहचानना, उससे एकात्म हो जाना, और जिसकी मुझे अनुभूति हुई है, वह सब को देना यही समरसता है।

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'इतिहास' का अर्थ है जो जैसे हुआ। इस बात को कैसे नकारा जा सकता है कि अपने देश में भूतकाल में कई स्थानों पर जाति के आधार पर भेदभाव किया गया है। पूर्व प्रधानमंत्री अटल जी की एक कविता में वो लिखते हैं, “रोम कहाँ, यूनान कहाँ है, घर-घर में शुभ अग्नि जलाता वह उन्नत ईरान कहाँ है.. ”। आक्रमणकारियों ने दुनिया की कितनी सभ्यता नष्ट कर दी पर भारत का समाज जीवन हजार वर्ष के आक्रमणों के बावजूद भी नष्ट नहीं हुआ। लेकिन इस सारे काल में हमारे समाज जीवन में जो दोष उत्पन्न हुए, कुछ गलत परंपरा बस गई, उनको ठीक करना रह गया। आज भी 21वीं सदी में और भारत की स्वतंत्रता के 75 वर्ष बाद भी हमें ऐसे भेदभाव की घटनाएं होती दिखती हैं। एक सभ्य समाज के अंग होने के नाते, एक युवा होने के नाते, ऐसा होता देख क्या हमें रात को अच्छी नींद आ सकती है? क्या हमारा संवेदनशील युवा मन इस जातिगत विषमता को खत्म करने के लिए कुछ करने का संकल्प ले सकता है? इस लेख में हम अपनी सामाजिक समरसता की भूमिका को समझने का और विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ता का इस विषय में क्या व्यवहार हो इस पर चर्चा करेंगे। साथ ही इस लेख को पढ़ने के पूर्व हमारी मनःस्थिति भी कैसी हो यह भी मैं स्पष्ट करना चाहूँगा। पिछले सप्ताह मुंबई में अपने पूर्व राष्ट्रीय मंत्री अनिकेत ओव्हाळ के स्मृति में कार्य कर रहे समिति के कार्यक्रम में हमने कुछ मेधावी छात्रों को उनकी शिक्षा के लिए छात्रवृत्ति दी। उस कार्यक्रम में मैंने कहा की यह छात्रवृत्ति कोई दान, कृपा, सहायता या उपकार नहीं है। यह समाज के कुछ लोगों की दातृत्व एवं कर्तव्य की अनुभूति का प्रकटीकरण है। जब हम समरसता की बात करते हैं, एक विशिष्ट समाज हमारे सामने आता है। इस समाज की ओर देखने की हमारी दृष्टि और विचार कैसे होने चाहिए? स्वयं डॉ आंबेडकर जी ने उनको मिलने आए कुछ युवाओं को एक सवाल करके यह स्पष्ट किया है। उन्होंने उन युवाओं को पूछा कि आप मुझसे मार्गदर्शन चाहते हैं कि आप मेरे समाज के लिए क्या कर सकते हैं तो पहले यह बताएं कि आप इस समाज से क्या प्यार करते हो? यदि उत्तर हां है तो ही कार्य करो। हमारे समाज में जातिगत विषमता जिनके साथ व्यवहार में की जाती है, वो और मैं एक ही हैं, ऐसा अगर आप सोचते हैं, तो इसका ठीक से विश्लेषण भी होगा और उपाय भी योग्य मिलेंगे। अस्पृश्यता, अंधश्रद्धा, महिलाओं के प्रश्न, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार ऐसे सारे विषयों पर केवल बौद्धिक या तार्किक रूप से चर्चा, चिंतन कर नहीं चलेगा। हमें भावनिक नाता स्थापित करना पड़ेगा। हमें हम सभी की अंतर्निहित एकत्व के आधार पर विचार करना पड़ेगा‌।

 

पुराने जमाने में व्यवसाय केंद्रित समाज व्यवस्था बनी। जैसे-जैसे आधुनिक मशीनें आयी परंपरागत व्यवसाय नहीं टिक पाए और ऐसे समाजघटकों के लिए उपजीविका हेतु कोई पर्यायी व्यवस्था भी नहीं बनी। इस कारण वो हाशिये पर चले गए। समाज में ऐसे व्यवसाय करने वालों के प्रति अस्पृश्यता का भाव बना और बढ़ा भी समय के साथ। उसे मिटाने के लिए कई प्रयास भी हमारे यहां पर अनेक समाजसुधारकों और संतों ने किए। महात्मा ज्योतिबा फुले, डॉ. आंबेडकर, नारायणगुरु, संत एकनाथ, इत्यादि लोगों ने अनेक प्रयास किए। पहले जैसे जातिगत भेदभाव में रोटी-बेटी व्यवहार में दिखती थी, वैसे आज बड़े पैमाने पर हुए शहरीकरण के कारण और यंत्र-तंत्र के विकास के कारण रोटी के संबंध में तो व्यवहार का भेदभाव नहीं रहा। मुंबई में या बड़े शहरों में रहने वाले लोग, सार्वजनिक यातायात के साधन जैसे बस, रेल, हवाई जहाज हो, होटल हो, यहाँ पर खाने के लिए तो कोई भेदभाव नहीं कर सकते, तो इस स्तर पर तो हमें व्यवहार में परिवर्तन दिखता है। लेकिन आज भी यदि घर में बेटी की शादी करनी है तो जाति देखी ही जाती है और उससे जुड़ी सारी रस्में भी जाति भाव का प्रदर्शन करती है। हम भी परिषद का कम करते समय अत्यंत सहजता से सदस्यता करते हैं, बैठक में साथ बैठते हैं, भोजन साथ करते हैं, अपनी थाली ओर कभी-कभी साथी कार्यकर्ता की थाली भी धो देते हैं। हमें कभी ये जानने की आवश्यकता नहीं पड़ती की साथी कार्यकर्ता कौन सी जाति का है। अभी अपने 75 वर्ष के ऐसे समरसतापूर्ण सार्वजनिक कार्य की निरन्तरता से यह स्वभाव हमारे घरों में भी लगभग स्थिर हुआ है। पहले की पीढ़ी के कार्यकर्ताओं को इस विषय को लेकर अपने घरों में बहुत संघर्ष करना पड़ा है। लेकिन गावों में आज भी बस्तियां जाति के आधार पर बनी हैं और इसलिए वहाँ व्यवहार में भेदभाव आज भी दिखता है। क्या हमारे प्रयास से “एक गाँव एक शमशान, एक प्याऊ, एक मंदिर” इसे हम प्रत्यक्ष में व्यवहार में ला सकते हैं? अभाविप के कार्यकर्ता का कार्यक्षेत्र महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय परिसर साधारणतः होता है। इसलिए पहले पहल तो शिक्षा परिसर में सामाजिक समरसता के व्यवहार से होनी चाहिए। लेकिन क्रमशः यह हमारे व्यक्तिगत, पारिवारिक, व्यावसायिक तथा सामाजिक व्यवहार में भी झलकना चाहिए।

सामाजिक विषमता मिटाने के लिए विशेष प्रयत्न करने पड़ेंगे, क्योंकि व्यवहार में भले ही वह कम हुई हो पर मन से पूर्ण गई नहीं है। जैसे एक शिक्षक ने अपनी कक्षा के छात्रों को फलक पर खींची एक रेखा को बिना मिटाए छोटी करने को कहा वैसे ही यह कठिन लगता है। पर एक होशियार बालक ने उस रेखा के उपर एक बड़ी रेखा खींची और पहली वाली अपने-आप छोटी हो गई। छोटी अस्मिता मिटाने के लिए बृहद भाव जागरण करना पड़ेगा। यह भाव हिन्दुत्व का है। जाति व्यवस्था यह हिन्दुओं से जुड़ा विषय है इसीलिए यहाँ हिन्दुत्व का भाव जागरण कहना चाहिए। अन्यथा अभाविप के कार्यकर्ताओ के लिए पंथ संप्रदाय से उपर तथा दलगत राजनीति से उपर उठकर कार्य करना यह हमारी सैद्धांतिक भूमिका में अधोरेखित है ही। हमें बड़ी स्पष्टता से और बिना किसी पूर्वाग्रह से सामाजिक समरसता के रास्ते की रुकावटों पर बोलना चाहिए, छात्रों से चर्चा करनी चाहिए। कुछ दिन पूर्व मुंबई के एक प्रसिद्ध महाविद्यालय में मेरा व्याख्यान था। प्रारंभ में मैंने छात्रों से जानना चाहा कि उन्हें देश के सामने आज की प्रमुख समस्या क्या लगती है। मुझे बड़ा आश्चर्य और दुख हुआ जब उनसे मैंने “आरक्षण” यह एक समस्या है यह सुना। आगे 5 मिनिट मुझे इस विषय पर उनको वास्तव क्या है और आरक्षण क्यों, कब तक, ऐसे मुद्दों पर बोलना पड़ा। आरक्षण, सामाजिक न्याय जैसी बातों पर हमारे मन में सही धारणा आवश्यक है। सामाजिक विषमता मिटाना यह एक दीर्घकालीन लढाई हमें एकजुट होकर, वास्तव के धरातल पर रहकर तथा भारत के स्वर्णिम भविष्य के निर्माण को सामने रखकर करनी चाहिए। सभी को समान अवसर मिले, सभी स्पर्धा करने के लिए बराबरी में आएं, ऐसा समता का वातावरण सुदृढ़ समाज के लिए आवश्यक है। नकारात्मकता और केवल विरोध मात्र से समरसपूर्ण व्यवहार प्रस्थापित नहीं हो सकता है। भावात्मक प्रयासों से, संवेदनशील मन से, बंधुता के अकृत्रिम भाव से, और किसी भी प्रकार के बलिदान, त्याग करने की मन की तैयारी आवश्यक है। जैसे स्वतंत्रता हमें दीर्घ संघर्ष से, लाखों लोगों के बलिदान, त्याग और ताप से मिली है, वैसे ही समता और बंधुता दीर्घ चिंतन, मंथन तथा कार्यक्रम व उचित व्यवहार से प्रस्थापित होगी। एक राष्ट्रीय समाज इस नाते हमारे मानबिन्दु, हमारे समान आदर्श, राष्ट्रपुरुष, हमारे मूल्य, जो हम सभी को एक धागे में पिरोये, इनका भाव जागरण करने से संकुचित जाति आधारित विचार और व्यवहार समाप्त होकर एक संगठित, सुरक्षित, समरस, सुखी तथा समृद्ध भारत हमें अपने स्वयं के जीवन काल में देख सकें ऐसे व्यक्तिगत एवं सामूहिक प्रयास हम सभी करें।

 

(लेखक - श्री मंदार भानुशे, राष्ट्रीय उपाध्यक्ष अभाविप)