स्वर्गीय यशवंतराव केलकर

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स्वर्गीय यशवंतराव केलकर जी के रूप में केवल अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद को ही नहीं, समग्र भारतीय समाज जीवन को एक अद्भुत रसायन प्राप्त हुआ था ऐसा कहने में मुझे कतई संकोच नहीं है। परिषद में आपने एक अलौकिक कार्यपद्धती की रचना की, तथा उसे परिषद में निरंतर प्रवाहित किया। सुस्पष्ट वैचारिक अधिष्ठान के साथ ही मानवी जीवन तथा मनोविज्ञान का भी दृढ आधार इस कार्यशैली का एक वैशिष्ट्य है। व्यवस्थित व्यक्तित्व के निर्माण से लेकर सुसंघटित राष्ट्र जीवन तक सभी पहलुओं को समाहित करने का सामर्थ्य इस कार्यशैली में है। सामूहिकता, पारस्परिकता और अनामिकता - ये हैं इस कार्यशैली के महत्वपूर्ण बिंदू। समय-समय पर कार्यपद्धती का वर्णन करते हुए आपने बडी कुशलता से इन बिंदूओं को कार्यकर्ताओं के सम्मुख रखा, इस सहजता के साथ रखा कि वह कार्यकर्ता के अंतरंग में स्थापित हो तथा उन्हीं के व्यवहार द्वारा संघटन में स्थिर भी हो। अभाविप ने आज एक विशाल रूप प्राप्त किया है। देश में हर एक विश्वविद्यालय क्षेत्र में तथा हर जिले में संगठन का विस्तार हुआ है। सुदूर पूर्वांचल तथा अंडमान निकोबार जैसे क्षेत्रों में भी परिषद प्रभावी रूप प्राप्त कर चुकी है। इस साल की सदस्य संख्या पचपन लाख के पार पहुंची है, तथा देश के सभी क्षेत्रों में लगभग नौ सौ छात्र-छात्राएं परिषद के विस्तार के कार्य में पूर्णकालीक बनकर जुटे हैं। महाविद्यालयीन छात्र समुदाय को केंद्र स्थान पर रखना, प्राध्यापक-शिक्षक-विश्वविद्यालय की संरचना-शिक्षाविद आदी सभी संबंधित समुदायों का समावेश करने वाली शैक्षिक परिवार की संकल्पना को अपनाना, सालभर निरंतर सक्रिय रहना, शैक्षिक समस्याओं के समाधान के लिए आवश्यकतानुसार संघर्ष में अग्रसर रहते हुए भी रचनात्मक दृष्टिकोण कायम रखना, राष्ट्रनीति के बारे में सजग, परंतु दलगत राजनीति से संपूर्ण अलिप्त रहना.. आदि जैसे विशेषताओं से युक्त एकमात्र छात्र संगठन है- विद्यार्थी परिषद। कौन है इस अद्भुत संगठन के निर्माता/रचयिता? इस सवाल का नि:संदेह उत्तर है, 'सामूहिक नेतृत्व'। परिषद व्यवहार में इस सामूहिकता को दृढमूल करने वाले थे यशवंतराव केलकर।

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आज सामान्यतः संस्था, संगठन, राजनैतिक दल आदी सभी में बिखराव की स्थिति देखने मिलती है। संगठन बनते हैं, बढते हैं, लौकिक प्राप्त भी होते हुए दिखते हैं, किंतु कुछ ही दिनों में अपने ध्येयपथ से भटकते हैं। महत्वकांक्षा, प्रतिस्पर्धा, गुटबाजी आदि के घेरे में जाते हैं। विघटन की प्रक्रिया जोर पकडती है। इस पृष्ठभूमी पर परिषद जैसा संगठन दिन प्रतिदिन अधिक मजबूत होते जा रहा है। इसका रहस्य है - सामूहिकता तथा पारस्परिकता। संगठन का हर छोटा बडा निर्णय सामूहिक चर्चा से सहमती बनाकर ही हो, इससे वह निर्णय समाजहित युक्त भी होता है और उसमें सभी कार्यकर्ता सहभागिता का भी अनुभव करते हैं। मत अनेक, निर्णय एक ऐसी मानसिकता अपने आप बनते जाती है। इस मानसिकता को ढालने के लिए यशवंतरावजी मित्रता का सुझाव देते थे। मित्रता की आपकी परिभाषा भी अद्भुत थी‌। इस मित्रता को आयु, जाति,पंथ, संप्रदाय,भाषा, प्रदेश जैसी किसी भी बात की मर्यादा नहीं थी। मित्रता यानी आत्मीयता का एक निरपेक्ष बंधन, ऐसे सादे सरल शब्द में वे परिभाषा करते थे। आपसी हितचिंतन का एक निकटम विश्वास का स्थान। अपने अंतरंग का छोटे से छोटा कोना भी मुक्त मन से उजागर करने का स्थान यानी मित्र। कार्यकर्ताओं में ऐसी निर्मल मित्रता हो, उसी से परस्पर संबद्धता की श्रृंखला गूंथी जाय तो व्यक्तिगत तथा सांगठनिक व्यवहार में पारस्परिकता का भाव सहज ही प्रभावित होगा, हम एक दुसरे के सहयोगी बनें यह उसका स्वाभाविक परिणाम होगा। इस तरह से एक ही ध्येय से प्रेरित, उस ध्येयसृष्टि के हर एक पहलू के बारे में एक ही प्रकार की समझदारी, तथा सभी सामाजिक, राष्ट्रीय विषयों के बारे में स्थूल रूप से समान भूमिका इन विशेषताओं से युक्त मित्रों की एकरस टोली (टीम) बनते जाती है।

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व्यक्तित्व विकास के बारे में आपका निवेदन, भावनिक प्रक्रिया और शास्त्र शुद्धता इन दोनों के संतुलन का अनुपम उदाहरण है। व्यक्ति गुण दोषों से युक्त इकाई होती है। उसके दोषों का निवारण तथा गुणों का पुष्टीकरण होना यह विकास प्रक्रिया की अत्यंत महत्त्वपूर्ण परंतु संवेदनशील बात होती है। स्वभाव प्रकृती के नुकिले कोने चुभते हैं और (उनके बारे मे ठीक समझदारी न हो तो) मनमुटाव निर्माण होता है।| इस कठीनाई पर भी मित्रता से ही उपाय हो सकता है ऐसा यशवंतराव जी का विश्वास था| ''हम सब अपूर्णांक हैं, एक दुसरे से जुडने से ही पूर्णांक सिद्ध होगा" शब्दों में विश्वास को जगाते थे। यंत्र में जैसे Lubricant होता है, उसी प्रकार कोने घीसने के काम में भी मित्रता का Lubricant उपयोगी सिद्ध होगा। जैसे, जबान दांतों तले दबने से होने वाली जख्म अपने आप भर आने की प्रक्रिया शरीर मे निसर्ग निर्मित है। मित्रता से अंतर्गत सुधार की व्यवस्था की जा सकती है (Internal Lubricant, Internal correction) यह आपका मंत्र था। इस बारे में 'हम सब एक ही नाव के प्रवासी हैं' (We are on the same rope) इसका एहसास जगाते समय वे एक मराठी कविता की पंक्ती उच्चारते थे। "मुखा फिरवूनी जरा वळून पाहता मागुती, कितीक हृदये वदा चरकल्या विना राहती?" अर्थात जरा सा भी हम अपने अतीत में झांकें, तो (किसी ने किसी बर्ताव के बारे मे) पश्चात्ताप की भावना हर व्यक्ति के मन मे निश्चित ही निर्माण होती है।

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मित्रता से सामूहिकता और पारस्परिकता इसी क्रम में जिस गुण का उल्लेख यशवंतराव जी करते थे, वह तो आज के सार्वजनिक जीवन व्यवहार में बहुत ही दुष्प्राप्य है ऐसा लगता है। उस गुण का नाम है - अनामिकता। कर्तव्य जताना जरुरी है, बताना आवश्यक नहीं, नेकी कर और दरिया में डाल...! अजंता तथा एलोरा की अद्भुत गुंफाये या विशाल प्राचीन देवालय और शिल्पों के निर्माताओं ने कहीं अपना नाम उन रचनाओं में लिखा नहीं। उसी अपौरुष मानसिकता का दर्शन यशवंतरावजी ने निरंतर स्वयं के व्यवहार से उदाहरण स्वरूप सिद्ध किया। संगठन और समाज में अनामिक रहते हुए कार्यरत रहना, यह आपने सिद्ध किया हुआ उदाहरण मार्गदर्शक दीप जैसा आगामी कई पीढीयों तक कार्यकर्ताओं के सामने जलता रहेगा।

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यशवंतरावजी के विचार विश्व, मनोविश्व तथा संगठन विश्व का विस्तार अतिविशाल है। उसका एक बहुत ही छोटा-सा अंश इस आलेख में दर्शाने का प्रयास मैंने किया है। किंतु वह छोटा सा अंश भी हम सभी को दिशाबोध करायेगा और प्रेरणा का संबल देते रहेगा। स्वर्गीय यशवंतरावजी केळकर की जन्मशती के निमित्त हम उस प्रेरणा का निर्वाह करने का संकल्प करें।

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(लेखक - श्री अरुण करमरकर)