नवनिर्माण आंदोलन : छात्रशक्ति से सामाजिक परिवर्तन की अद्वितीय घटना

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ब्रिटिशों से स्वतंत्रता प्राप्ति के दो दशक के पश्चात भी देश के कई क्षेत्रों में छात्रों को उनके मूलभूत मौलिक अधिकार प्राप्त नहीं थे। जब छात्र अपने अधिकार प्राप्ति से वंचित हुए तो स्वाभाविक रूप से समस्त छात्र समुदाय के बीच उद्धतता (रोष) के भाव के उत्पन्न होने की स्थिति दिखाई दे रही थी। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद एक जागरूक छात्र संगठन के रूप में वर्ष 1971 के अंतर्गत यह निर्णय कर चुका था कि राष्ट्र पुनर्निर्माण में छात्रों की महत्वपूर्ण भूमिका है। नवंबर 1973 में गुजरात राज्य के कर्णावती शहर में आयोजित हुए राष्ट्रीय अधिवेशन में छात्र शक्ति की सामाजिक परिवर्तन में क्या भूमिका हो सकती है और अब तक क्या भूमिका रही है? इस विषय पर चर्चा संभव हुई। समग्र छात्र समुदाय एक नवीन दिशा में ऊर्जा के साथ राष्ट्र को मंदिर के रूप में स्वीकार करते हुए राष्ट्र पुनर्निर्माण के ध्येय के साथ आगे बढ़ रहा था। विद्यार्थी परिषद की राष्ट्रीय कार्यकारी में पारित हुए प्रस्ताव से संपूर्ण छात्र समुदाय के बीच अपने अधिकारों को प्राप्त करने की लड़ाई को लेकर लड़ने की उमंग और उत्साह बढ़ता जा रहा था। ऐसे में अभाविप आयोजित हुए राष्ट्रीय अधिवेशन के ठीक एक माह पश्चात ही स्वतंत्र भारत के लोकतंत्र को कलंकित करने वाली 'इमरजेंसी' पूरे देशभर में लागू हुई। 'इमरजेंसी' से ठीक 6 माह पूर्व दिसंबर वर्ष 1974 में गुजरात के छात्रों ने उस समय गुजरात राज्य की सत्ता में स्थापित चिमन पटेल सरकार को होश में लेकर आने के लिए बाहोश कार्य आंदोलन के स्वरूप से किया। मानो नया साल प्रारंभ ही हो रहा था कि गुजरात के छात्रों ने यह ठान लिया कि इस नए साल में पुरानी भ्रष्ट सरकार, उसके भ्रष्ट सिस्टम और सिस्टम में बैठे हुए अधिकारियों को कहीं पर भी किसी भी प्रकार का स्थान नहीं दिया जाएगा। सरकार को लेकर अपने कार्यों के प्रति छात्रों में जो असंतुष्टि बनी हुई थी, वह तत्पश्चात आंदोलन के रूप में परिवर्तित होने लगी और इसी प्रकार छात्रों में असंतुष्टि के चलते गुजरात के सभी महानगरों से लेकर अन्य जिलों में छात्र आंदोलन का उदय हुआ था। जिसकी वजह से उस समय की सामाजिक व्यवस्था, उस समय के राजनेता, और सभी शैक्षणिक संस्थानों को अपनी भूमिका पर उठे प्रश्नों का उत्तर देना पड़ा।

गुजरात राज्य में प्रारंभ हुए इस छात्र आंदोलन का मुख्य उद्देश्य किसी सरकार को गिराने का बिल्कुल भी नहीं था किंतु यह अवश्य था कि छात्रों की समस्याओं को जो कोई भी नहीं समझेगा, और जो भी छात्रों की बातों को टालने का प्रयास करेगा उस व्यक्ति या उससे संबंधित सिस्टम को क्षमा नहीं किया जाएगा। आंदोलन की शुरुआत किसी एक जगह से हुई हो ऐसा भी नहीं था, गुजरात के विविध कैंपस में छात्रों को हो रही समस्याओं को उठाने के लिए ऊर्जा देने का कार्य समग्र छात्र समुदाय ने इस आंदोलन के माध्यम से किया था। गुजरात के कर्णावती (अहमदाबाद) में दिसंबर माह की सूखी व शरीर काँपने वाली ठंड के बीच 20 दिसंबर वर्ष 1974 को LD इंजीनियरिंग कॉलेज की मेस में भोजन के दामों में बढ़ोत्तरी के विषय को लेकर वहाँ के स्थानिक छात्रों ने विरोध प्रदर्शन करते हुए धरने देने प्रारंभ किए। उनके द्वारा किए गए इस प्रदर्शन ने शाम तक हिंसक स्वरूप धारण कर लिया। जिसमें मेस के फर्नीचर को जलाकर छात्रों ने अपना आक्रोश व्यक्त किया। दिसंबर की भरी ठंड में रात्रि 2 बजे अहमदाबाद पुलिस ने 5 छात्रों को गिरफ्तार किया। जैसे ही गिरफ्तारी की बात सभी छात्रों तक पहुँची, वैसे ही 500 से अधिक छात्रों ने थाने में पहुंचकर उन्हें छोड़ने की माँग पूरी रात की, सुबह पुलिस ने छात्रों से प्रत्याभूति पत्र लिखवाकर दूसरी बार ऐसा नहीं करने का आश्वासन दिया और गिरफ्तार किए गए सभी छात्रों को छोड़ा। तब जाकर वहाँ एकत्रित हुए छात्र शांत हुए। 

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दूसरी तरफ़ गुजरात में स्थित सौराष्ट्र के मोरबी के LE इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्रों ने पिछले कई दिनों से मेस में भोजन के भाव में बढ़ोत्तरी की वजह से एक समय का भोजन त्याग देने का निर्णय लिया। उस समय प्रकट हुई इस स्थिति से कई छात्रों के स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव पड़ा, लेकिन फिर भी वहाँ के भ्रष्ट कॉलेज प्रसाशन को छात्रों की चिंता नहीं हो रही थी। उनके लिए जैसे यह एक सामान्य विषय था। दिनांक 21 दिसंबर वर्ष 1974को कॉलेज के छात्रों ने ठान लिया कि अब इस भ्रष्ट व अमानवीय कॉलेज प्रसाशन को सबक सिखाएँगे और सही मार्ग दिखाऐंगे। 21 दिसंबर से पूर्व वहाँ के छात्रों के अनुसार कॉलेज में हो रही समस्याओं को लेकर 33 बार छात्रों का प्रतिनिधि मंडल कॉलेज प्रशासन से मुलाकात कर चुका था। भेंट करने के बावजूद भी छात्रों की समस्या का कोई हल नहीं निकला तो छात्रों ने मेस में ही कॉलेज प्रशासन के सामने धरना प्रदर्शन किया, लेकिन प्रशासन के भ्रष्ट लोग फिर भी छात्रों की बात सुनने को तैयार नहीं थे, छात्रों के समक्ष यह एक बड़ी समस्या थी। इस दौरान वहाँ के छात्रों ने हिंसक प्रवृत्ति को अपनाया। हॉस्टल व मेस की वस्तुओं को जोश में आकर छात्रों ने जला दिया। इस घटना के बाद वहाँ उपस्थित लगभग 23 छात्रों की गिरफ्तारी की गई और उन पर रायोटिंग, अन-लो-फुल एसेंबली जैसे आरोप के साथ परिवाद स्वीकृत हुई। छात्रों की गिरफ्तारी के बाद पुनः छात्रों का समुदाय आक्रोशित हुआ। पुलिस थाने का घेराव कर छात्रों ने रिहाई की माँग की, छात्रों पर किसी का भी वश नहीं था, इतने समय से अंदर लगी हुई आग का कारण छात्रों के आक्रोश से झलकने लगा था। घटना की गंभीरता को देखते हुए मोरबी के समाजसेवी, राजनेता व राजकोट के जिला पुलिस अधीक्षक सभी घटनास्थल पर पहुँचे। सरकार पर दबाव के चलते वहाँ की तनाव भरी परिस्थिति को देखते हुए उन सभी छात्रों को पुलिस ने प्रत्याभूति लिखवा कर रिहा किया। 

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पूरे गुजरात में इन दोनों प्रदर्शनों की बात बहुत शीघ्रता से फैली, यह विषय उस समय सुर्खियों में रहा। गुजरात में महंगाई बढ़ती जा रही थी, अन्न व खाद्य पदार्थों के दामों में भारी बढ़ावा देखने को मिल रहा था। किसान को उनकी पूरी आय का नहीं मिलना, सामान्य व्यक्ति के जीवन को इस बढ़ती महंगाई ने बुरी तरह प्रभावित किया। पद्धति बद्ध भ्रष्टाचार जैसे कई विषयों को लेकर आम व्यक्ति के मन में आक्रोश की स्थिति थी, आम व्यक्ति विवश था। ऐसे कई विषयों को लेकर गुजरात के कई क्षेत्रों में अलग-अलग आंदोलन चल रहे थे। छात्रों द्वारा अहमदाबाद व मोरबी में दिखाई गई साहस की वजह से आम आदमी भी अपनी बात को उठाने के लिए साहस जुटाने लगा था, वह निडर हो कर आगे आने लगा था। इतने बड़े प्रदर्शन व घटना के बाद भी चिमन पटेल की सरकार और प्रशासन कुंभकर्ण की निंद से उठने को तैयार नहीं थे। ऐसे में 'युवक लागणी (सहानुभूति) समिति' का गठन हुआ। जिसकी प्रथम बैठक गुजरात विश्वविद्यालय के सेनेट खंड में हुई। इस समिति में अभाविप के कार्यकर्ता भी थे, समिति में से कई लोग आज गुजरात के बड़े व्यक्तियों में से हैं। समिति ने निर्णय किया कि छात्रों के आंदोलन को गति प्रदान करने हेतु प्रतिदिन कार्यक्रम, प्रतीकात्मक प्रदर्शन व विभिन्न स्थानों पर धरने करने की योजना तैयार करना होगी। समिति के इस निर्णय से गुजरात के बड़े महानगरों तक आंदोलन पहुँचा, इस आंदोलन को प्रदेशव्यापी बनाने में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने बड़ी अहम भूमिका सुनिश्चित की, ऐसा कई प्रतिष्ठित पत्रकार व विचारकों का कहना है। प्रतिदिन विभिन्न कार्यक्रमों से पूरे प्रदेश में इस विषय की अच्छी समझ सभी के बीच में स्थापित होने लगी थी, साथ ही लोगों में छात्रों के इन प्रश्नों के लिए सहानुभूति की भावना भी बढ़ने लगी थी।

गुजरात के बड़े शहर जैसे कर्णावती, राजकोट, वड़ोदरा, सूरत व अन्य कई स्थानों पर समिति के आंदोलन चल रहे थे। यह विद्यार्थी आंदोलन केवल छात्रों का न रहते हुए सर्वसमाज के आंदोलन में रूपांतरित होता चला गया। समाज के सभी वर्ग में तत्कालीन चिमन पटेल की सरकार के विरुद्ध आक्रोश दिख रहा था। समाज के सभी वर्ग इस आंदोलन में बढ़-चढ़कर भाग ले रहे थे। आंदोलन का बढ़ता प्रभाव व समाज से प्राप्त हुई स्वीकृति को देख तत्कालीन चिमन पटेल सरकार ने छात्रों पर दबाव बनाना शुरू किया, कई लोगों पर लाठी चार्ज किया गया। जब तक यह आंदोलन प्रदेश में चला, आंदोलन के समय छात्रों पर 1554 बार लाठी चार्ज किया गया, 4342 टियर गैस सेल का उपयोग करते हुए 8053 छात्रों तथा अन्य आंदोलनकर्ताओं की धरपकड़ की गई। 310 लोगों को घायल करते हुए सरकार ने छात्रों का दमन कर, क्रूर गतिविधियों को उनकी बात को दबाने का माध्यम बना लिया था, इतने पर भी जब छात्रों का आंदोलन और प्रभाव से आगे बढ़ा और आंदोलन के रूकने की कोई संभावना नहीं दिखी तो छात्र विरोधी पटेल सरकार ने 1405 राउंड गोलियाँ चलाते हुए आंदोलन कर रहे 104 निर्दोष छात्रों के प्राण ले लिए, लेकिन यह आंदोलन इतना सब होने के बावजूद भी नहीं थमा। इसने तब भी थमने का नाम नहीं लिया, तब तानाशाही कांग्रेस सरकार ने 'MISA' के असंवैधानिक क़ानून के तहत 184 छात्र नेताओं को पकड़ लिया गया। अपने अधिकारों के लिए सरकार द्वारा इतना प्रताड़ित होने के पश्चात अब समाज के सभी वर्ग भी इस आंदोलन में सहभाग करने लगे थे। यह आंदोलन जोरों शोरों से आगे बढ़ने लगा।

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73 दिन के इस आंदोलन में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की अहम भूमिका का उल्लेख इतिहास में मिलता है और जिन्होंने इस आंदोलन को समीप से देखा है वह अपने विभिन्न लेख एवं अनुभवों को पुस्तकों साझा कर चुके हैं। अभाविप की गुजरात प्रदेश में प्रत्येक जिला तक फैली हुई संगठनात्मक संरचना के चलते इस आंदोलन को प्रादेशिक स्वरूप मिला। अभाविप ने गुजरात के कई जिलों में इस आंदोलन के दौरान विभिन्न यात्रा, सभा तथा प्रदर्शन करते हुए इस को एक नया रूप देने का अनूठा कार्य किया था। विद्यार्थी परिषद ने उस समय की तत्कालीन सरकार के समक्ष छात्रों की माँगों को तुरंत पूरी करने बात रखी थी और जब तक माँगे पूरी नहीं होती तब तक सरकार के किसी भी मंत्री के कार्यक्रम गुजरात के किसी भी स्थान पर नहीं होने देंगे ऐसी घोषणा करते हुए सरकार को चेतावनी दी थी। विद्यार्थी परिषद के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष ने भी इस आंदोलन के लिए गठित समिति को समय-समय पर मार्गदर्शित किया था। इस आंदोलन को विद्यार्थी आंदोलन से समाज का आंदोलन बनाने में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका उस समय के छात्रों और समाज के लोगों की रही है, विद्यार्थी परिषद ने न सिर्फ मुख्यमंत्री से त्यागपत्र की मांग की बल्कि तत्कालीन शिक्षा मंत्री एवं खाद्य वितरण मंत्री के समक्ष भी त्यागपत्र का प्रस्ताव रखा। देखते ही देखते कैसे एक विद्यार्थी आंदोलन समाज का आंदोलन बन गया तथा जब तक छात्रों की समस्या का हल नहीं हुआ तब तक इसे गति मिलती रही, यह अपने आप में एक असाधारण बात रही। शैक्षणिक परिसर में छात्रों को हो रही समस्या के समाधान में चल पड़े इस आंदोलन ने गुजरात कि सैंकड़ो समस्याओं का समाधान निकाला।संघर्ष भरी यह लम्बी यात्रा ने परिषद के 'छात्र शक्ति-राष्ट्र शक्ति' के नारे को सार्थक किया है। 'विद्यार्थी लागणी (सहानुभूति) समिति' गुजरात के सामाजिक एवं राजनैतिक परिदृश्य को बदलने वाला 'नवनिर्माण आंदोलन' बना, वहीं दूसरी और कई इतिहासकारों के लिए यह शोध के विषय जैसा है। 'नवनिर्माण आंदोलन' से जुड़ी घटनाओं और विषय को लेकर आज भी अधिकांश विद्यार्थी परिचित नहीं है, यह दुःख का विषय है। इस आंदोलन की शक्ति यह थी कि इसने न केवल राज्य के मुख्यमंत्री के त्यागपत्र के लिए बल्कि गुजरात की विधानसभा तक को भंग करवाया। छात्र शक्ति ने तत्कालीन सरकार के विधायकों पर दबाव बनाया, उनका घेराव किया, उनके विरुद्ध प्रदर्शन किए और सफलतापूर्वक सभी विधायकों को अपने पद से त्यागपत्र भी दिलवाया, जिसके पश्चात गुजरात राज्य में विधानसभा हेतु पुनः चुनाव हुए और अहंकारी चिमन पटेल एवं भ्रष्ट कांग्रेस पराजित होती दिखाई पड़ी।

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नवनिर्माण आंदोलन' पूरे गुजरात में सामाजिक एवं सकारात्मक परिवर्तन लेकर आया। सरकार को छात्रों के प्रति, समाज के प्रति एवं नागरिकों के प्रति अपने उत्तरदायित्व की अनुभूति हुई। गुजरात के लोगों में भी स्वयं के अधिकारों को लेकर जागरूकता बढ़ी, आज शायद गुजरात के विकास में भी इस 'नवनिर्माण' की नींव रखी हुई यह कहना कदापि अनुचित नहीं होगा। इस आंदोलन से प्रेरित होकर केवल गुजरात ही नहीं बिहार में भी छात्रों के साथ हो रहे अन्याय के विरूद्ध आंदोलन चल पड़ा। बिहार के छात्रों ने भी नवनिर्माण आंदोलन से प्रेरणा लेते हुए तत्कालीन बिहार सरकार के सामने अपना मोर्चा खोला। बिहार का छात्र आंदोलन 'जे.पी. मूवमेंट' के नाम से भी इतिहास में प्रख्यात है। गुजरात में चल रहे आंदोलन के समय जय प्रकाश नारायण स्वयं गुजरात आए थे और वह छात्रों द्वारा चलाई गई इस लड़ाई से अत्यधिक प्रभावित थे, जब बिहार के छात्रों ने उनसे वहाँ के आंदोलन के लिए नेतृत्व करने आग्रह किया तब जय प्रकाश नारायण जी ने एक ही अवस्था से वह स्वीकार किया कि बिहार का आंदोलन हिंसक नहीं होगा। अंत में बिहार के नवनिर्माण आंदोलन को जे.पी. के नेतृत्व में वेग मिला और तत्कालीन बिहार सरकार को भी त्यागपत्र देना पड़ा। नवनिर्माण आंदोलन से प्रेरित हो कर बिहार में चल रहे इस आंदोलन से दिल्ली तक कांग्रेस की भ्रष्ट जड़े हिलने लगी, जिसके पश्चात तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को देश में 'इमरजेंसी' घोषित करना पड़ी।

 

'नवनिर्माण आंदोलन' एक उत्तम उदाहरण है कि अगर देश का विद्यार्थी ध्येय निश्चित कर ले तो वह हवा को किसी भी ओर पलटने में सक्षम है। कॉलेज की मेस तथा हॉस्टल से संबंधित कुछ समस्याओं को लेकर चल पड़े इस आंदोलन ने किस प्रकार दो राज्य की सरकारें गिराई वह अपने आप में एक महाप्रतापी कहानी है। वर्तमान समय में भी देश के जिन क्षेत्रों में विद्यार्थी परिस्थितियों का सामना कर रहा है, इन्हें दूर करने में भी युवा ही अपनी भूमिका तय करेगा। समाज एवं राष्ट्र के बीच रहकर कार्यरत कई विघटनकारी शक्तियों के सामने छात्रों के लिए एकजुट होकर राष्ट्रवादी विचार रखना और अंतिम पल तक लड़ना अनिवार्य होना चाहिए। गुजरात तथा देश के छात्रों को अपने वैभवशाली इतिहास का स्मरण करने की आवश्यकता है। आज भौतिकता से त्रस्त इस विश्व की एक मात्र आशा भारत है। समग्र विश्व तथा देश की दृष्टि हम सभी छात्रों तथा विवेकानंद जी के विचारों से पोषित हम युवाओं पर टिकी है। ऐसे समय में नवनिर्माण आंदोलन के ५० वर्ष पूर्ण होने के अवसर पर हम सभी युवा भारत माँ की सेवा का संकल्प लें, आगे बढ़े ऐसी शुभेच्छा तथा देश की छात्र शक्ति को नवनिर्माण आंदोलन के ५० वर्ष पूर्ण होने पर अशेष शुभकामनाएँ।

 

 

यह लेख समर्थ हितेन भट्ट (प्रदेश मंत्री, अभाविप गुजरात) द्वारा 25 जून 2024 को भारतीय लोकतंत्र के सबसे काले दिन की 49वीं वर्षगांठ पर लिखा गया था