Swami Vivekananda & the Panch Parivarthan

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स्वामी विवेकानंद यह नाम सुनते ही एक वाक्य चित्त में त्वरित आता है -'उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत' अर्थात्  'उठो, जागो, और अपने लक्ष्य को प्राप्त करो'. वैसे तो यह वाक्य कठोपनिषद से है परंतु विगत शताब्दियों से यह मंत्र युवा संन्यासी विवेकानंद जिसने ना केवल सनातन धर्म बल्कि  भारत के ज्ञान को निर्भीकता और स्पष्टता से विश्व के समक्ष रखा था। स्वामी विवेकानंद पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने पश्चिम में भारतीय सनातन संस्कृति, वेदान्त दर्शन और योग को केवल प्रस्तुत ही नहीं अपितु प्रतिष्ठित भी किया। धर्म संसद के पहले ही भाषण से वो विश्व विख्यात हो गए थे! अमेरिका वासी बहनों और भाइयों!”उनके केवल इतना कहते ही सभी लोग खड़े हो गए और पूरा सभागार अगले 2 मिनट तक तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा। यह घोर करतल नाद उस संन्यासी के सम्मान में हुआ था, जिसे कुछ क्षण पूर्व हीन भावना से देखा गया था। कुल 17 दिनों (11 से 27 सितंबर, 1893) तक आयोजित हुई विश्व धर्म संसद में स्वामी विवेकानंद ने 6 व्याख्यान दिए। अमेरिका के विभिन्न प्रान्तों में उनके बड़े-बड़े पोस्टर लगे, दुनिया भर के समाचार पत्र उनकी प्रशंसा और वंदन से भरे हुए थे। विश्व भर में भारत को जानने के लिए जिज्ञासा रखने वालो के लिए वे एक आशा की किरण तो थे साथ ही साथ भारत की स्वाधीनता के आंदोलनों में भी उनकी विश्व विजय ने उत्साह भर दिया संभवतः इसीलिए श्री अरबिंदो योगी कहते थे “स्वामी विवेकानन्द तो उत्साह की आत्मा थे”, भगिनी निवेदिता कहती थी “वे घनीभूत भारत थे ,रवींद्र नाथ टैगोर कहते थे “वे साक्षात भारत ही थे यदि भारत को जानना है तो स्वामी विवेकानंद को पढ़ो” 2025 में स्वामी विवेकानंद की 162वी जयंती विश्व भर में मनाई गई, स्वाधीनता और गणतंत्र के अमृतकाल से शताब्दी काल की चर्चा चहुओर है, मिज़ोरम में फ़्रैंकी नाम के बच्चे के जन्म के साथ बीटा जनरेशन की शुरुआत हो गई है, भारत आने वाले दशकों तक विश्व की सर्वाधिक युवा आबादी वाला देश होगा, भारत का अमृत काल भारत के आगे बढ़ने के अनेकों संकेत दे रहा है, ऐसे स्वर्णिम काल में विवेकानंद और अधिक स्मरण आते है प्रासंगिक होते क्योंकि विवेकानंद ने कहा था “मुझे सौ विश्वासी युवा दो.. मैं भारत को पूरी दुनिया में नंबर एक राष्ट्र बना दूंगा..." । आज युवा है पर वे नहीं है परंतु हमारे साथ है उनका ज्ञान, चिंतन, विचार और उनके द्वारा दिखाई गई दिशा भारत को आगे बढ़ने के लिए कौनसा मार्ग हो सकता है जब यह विचार मन में आता है तो पहले भारत को वैसा बनाना पड़ेगा जैसा हमारे महापुरुष चाहते थे.. जैसा स्वामी विवेकानंद चाहते थे। ऐसे अनेकों मार्ग में से एक मार्ग विश्व के सबसे बड़े सामाजिक एवं सांस्कृतिक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने समाज को पंच परिवर्तन का बताया है वे परिवर्तन है - सामाजिक समरसता, कुटुम्ब प्रबोधन, स्व का भाव, नागरिक कर्तव्यों का पालन और पर्यावरण संरक्षण... स्वामी विवेकानंद भारत के लिए इन्ही परिवर्तन का संदेश अपने जीवन में देते है, किसी भी देश के लिए विकास के अनेकों आयाम हो सकते है आर्थिक ,सामाजिक ,सामरिक और भी अन्यान्य परंतु अपने बाल्यकाल में, विद्यार्थी जीवन में और एक संन्यासी के रूप में भारत भ्रमण करते हुए जिन विवेकानंद का दर्शन समाज ने किया वे भारत के समाज और नागरिकों को विस्मृत हो चुके अपने गौरवशाली इतिहास ,अपने ज्ञान और कर्तव्यों की और जाने के लिए आवाहन करते हुए दिखते है इसीलिए लगता है कि केवल संघ नहीं अपितु स्वामी विवेकानंद भी भारत के लिए चाहते थे पंच परिवर्तन का संकल्प ….. 

स्वामी विवेकानंद और समरसता  

स्वामी विवेकानंद ने कहा था: "नारायण तक पहुँचने के लिए हमें दरिद्र नारायण की सेवा करनी चाहिए, जो देश के भूखे लाखों लोग हैं। वे जातिभेद तथा अस्पृश्यता की समाप्ति के संस्कार लेकर पैदा हुए थे। जब नरेन्द्र छह-सात वर्ष के ही थे, उनके पिता की बैठक में कई प्रकार के हुक्के रखे थे। एक दिन नरेन्द्र प्रत्येक हुक्के की नली को मुंह में लगाकर गुड़-गुड़ करने का आनन्द उठा रहा था। अकस्मात् नरेन्द्र के पिताजी आ गए और उन्होंने पूछा, क्या कर रहे हो? बालक नरेन्द्र ने उत्तर दिया, मैं देख रहा हूं कि जाति हुक्का पीने से समाप्त कैसे होती है?पुत्र के अनूठे और बाल सुलभ उत्तर को सुनकर पिताजी आश्चर्यचकित रह गये। वे बाल्यकाल से ही नटखट, जिज्ञासु और विद्रोही बालक थे; उनको छुआ-छूत में अन्याय और भेद-भाव की गधं आती थी। स्वामी विवेकानंद जी की मान्यता थी कि भारतीय जीवन दर्शन दुनिया में सर्वश्रेष्ठ है। इसके उपरांत भी सामाजिक विषमता की खाई देखकर गहन वेदना होती थी। उन्होंने अपनी पीड़ा कुछ इस प्रकार व्यक्त की- ‘‘किन्तु इस सबसे ऊपर, मैं आप को पुन: स्मरण दिलाता हूं कि, प्रत्यक्ष कार्य की महती आवश्यकता है और उस कार्य का पहला चरण है, हमें भारत के लाखों वंचित लोगों के पास जाना होगा, हाथ दे कर उन्हें उठाना होगा।’’ एक गुरुभाई को लिखे पत्र में स्वामी जी ने मार्गदर्शन दिया-‘‘यदि भलाई चाहते हो तो घण्टा इत्यादि को गंगाजी में सौंपकर साक्षात भगवान नारायण की ‘विराट और स्वराट की’ मानव देहधारी प्रत्येक मनुष्य की सेवा में तत्पर हो जाओ। यह जगत विराट रूप है प्रभु की पूजा का अर्थ है, उसके जन की सेवा इसी को कर्म कहते हैं। चुपचाप पड़े रहकर घण्टा हिलाना, यह तो एक प्रकार का रोग ही है। ईश्वर को हम प्रतिदिन दीनबन्धु दीनानाथ कहकर उनकी प्रार्थना तो करते हैं, किन्तु जिनके वे प्रभु हैं, स्वामी हैं, उनके प्रति हमारा व्यवहार क्या है?  स्वामी जी चेन्नई में 10-15 दिन रहे। रोज सायंकाल घूमने जाते तो देखते 20-25 लोग हटो, बचो पुकारने लगते। सब स्वामी जी से दूर हो जाते। इन्हें कुछ समझ नहीं आता कि यह क्या हो रहा है। दो दिन देखने के बाद तीसरे दिन एक का हाथ पकड़ लिया और पूछा यह क्या चल रहा है? उसने जो बताया सुनकर स्वामी जी अचम्भित रह गये। सूर्यास्त के समय शाम को परछाइयां लम्बी हो जाती हैं, हम लोगों की परछाई आपको स्पर्श ना कर ले, इसलिए सब दूर हो जाते हैं। बाद में स्वामी जी ने लिखा-आत्मवत सर्व भूतानां मानने वाले देश में दीवानों का यह कैसा पागलपन? तुम्हारे सामने एक भयानक दलदल है उससे सावधान रहना। सब कोई उस दलदल में फंसकर खतम हो जाते हैं। वर्तमान हिन्दुओं का धर्म न वेद में है न पुराण में, न भक्ति में है और न मुक्ति में, धर्म तो भोजन पात्र में समा चुका है; यही वह दलदल है। वर्तमान हिन्दू धर्म न तो विचार प्रधान है और न ज्ञान प्रधान, ‘मुझे न छूना, मुझे न छूना’ इस प्रकार की अस्पृश्यता ही उसका एकमात्र अवलम्बन है। इस घोर वामाचार रूपी अस्पृश्यता में फंसकर तुम अपने प्राणों से हाथ न धो लेना, जो लोग निर्धन को रोटी का एक टुकड़ा नहीं दे सकते, वे फिर मुक्ति क्या दे सकते हैं? दूसरों के श्वास-प्रश्वास से जो अपवित्र बन जाते हैं, वे फिर दूसरों को क्या पवित्र बना सकते हैं? अस्पृश्यता एक प्रकार की मानसिक व्याधि हैं, उससे सावधान रहना। उनके भाषणों और लेखों में यही भाव झलकता था कि सेवा का कोई गुप्त उद्देश्य नहीं होना चाहिए, सेवा कोई वाणिज्य कर्म नहीं है कि तुम कुछ प्राप्त करने के लिए अपने धर्म को अपनी सेवाएं दे रहे हो उन्होंने लिखा- ‘‘मत भूलो कि राष्ट्र झोपड़ियों में निवास करता है…राष्ट्र का प्रारब्ध अधिकांश लोगों की स्थिति पर निर्भर करता है; क्या तुम उन्हें ऊपर उठा सकते हो? उनकी जन्मजात धार्मिक पहचान को बनाये रखते हुए क्या तुम उनकी खोई पहचान वापस दिला सकते हो? यही उद्देश्य अपने सामने रखो…बिना धार्मिक आस्थाओं को क्षति पहुंचाये उनकी उन्नति’’  स्वामी विवेकानंद व कुटुम्ब प्रबोधन  "हम जो कुछ भी हैं, वह हमारे विचारों का परिणाम है। विचार के सृजन का बीज सबसे पहले परिवार के संस्कार रूपी वातावरण मे प्रस्फुटित होता है, जिनके कारण रज, तप और सतगुण व्यवहारिक  परिभाषा परिलक्षित करते हुए समाज के निर्माण में मुख्य भूमिका निभाता है।" भारतीय समाज में परिवार केवल एक सामाजिक संरचना नहीं है, बल्कि यह एक आध्यात्मिक चेतना और नैतिक केंद्र भी है, जहाँ बाल्यकाल से संस्कार दिया जाता है फलस्वरूप संपूर्ण समाज को स्थिरता प्राप्त होती है। स्वामी विवेकानंद ने हिंदू दर्शन के चार आश्रमों (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास) में गृहस्थ आश्रम को सबसे महत्वपूर्ण बताया। स्वामी विवेकानंद का स्पष्ट मानना था कि "यदि भारत को सशक्त बनाना है, तो पहले परिवार को सशक्त बनाना होगा, क्योंकि एक आदर्श परिवार ही एक आदर्श समाज की नींव रखता है।" चूंकि गृहस्थाश्रम वह स्थान है, जहाँ व्यक्ति जिम्मेदारियों को सीखता है, प्रेम और त्याग का महत्व समझता है, और समाज के प्रति अपने दायित्वों को निर्वहन के लिए तत्पर होता है। एक परिवार की कल्पना तब सार्थक होती है जब वात्सल्य, प्रेम, करूणा, त्याग, मर्यादा, संयम, नियम की अधिष्ठाता परिवार और समाज की आधारशिला महिलाओ को उचित स्थान प्राप्त होगा। स्वामी विवेकानन्द विशेष रूप से महिलाओं के उत्थान और उनकी स्वतंत्रता पर बल दिया। उन्होंने कहा था— "जिस देश की महिलाएँ मजबूत हैं, शिक्षित हैं और संस्कारवान हैं, वही देश उन्नति की ओर अग्रसर होता है।" स्वामी जी ने कहा, किसी राष्ट्र की प्रगति का सबसे अच्छा मापदंड यह है कि वह अपनी महिलाओ के साथ कैसा व्यवहार करता है। संपूर्ण नारीत्व का अर्थ संपूर्ण स्वतंत्रता है। वे भारतीय नारी को सीता, सावित्री और गार्गी के रूप में देखते थे, जो त्याग, सेवा और ज्ञान की प्रतीक हैं। उन्होंने महिलाओं की शिक्षा और अधिकारों की बात करते हुए कहा— "एक सशक्त नारी ही एक सशक्त परिवार और समाज की आधारशिला रख सकती है।" स्वामी विवेकानंद की दृष्टी मे विवाह केवल एक सामाजिक अनुबंध नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक बंधन था। उनका मानना था कि पति-पत्नी केवल जीवनसाथी नहीं, बल्कि एक-दूसरे के आध्यात्मिक सहायक होते हैं। वे सदैव बल देकर कहते थे कि "यदि समाज में नैतिकता को बनाए रखना है, तो विवाह और पारिवारिक मूल्यों को संरक्षित रखना होगा।" पश्चिमी समाज में बढ़ती तलाक और अस्थायी संबंधों की प्रवृत्ति को देखकर चिंतित थे और भारतीय संस्कृति में विवाह के महत्व को बनाए रखने पर बल देते थे। स्वामी विवेकानंद ने माता-पिता की भूमिका को समाज निर्माण में अत्यंत महत्वपूर्ण बताया। उन्होंने कहा -"माता-पिता का पहला कर्तव्य यह है कि वे अपने बच्चों को न केवल शिक्षित करें, बल्कि उन्हें नैतिकता और आत्मसम्मान का पाठ भी पढ़ाएँ।" स्वामीजी का प्रबल मानना था कि बच्चों को अनुशासन, करुणा और आत्मनिर्भरता के संस्कार परिवार से ही मिलते हैं। स्वामी जी स्वतंत्रता के समर्थक थे, लेकिन वे अनुशासनहीनता के विरोधी थे। उन्होंने कहा "स्वतंत्रता किसी भी विकास की पहली शर्त है, लेकिन यह अनियंत्रित नहीं होनी चाहिए। नैतिकता और अनुशासन ही सच्ची स्वतंत्रता का आधार हैं।" वर्तमान परिदृश्य मे जब आधुनिकता के नाम पर पारिवारिक मूल्यों में गिरावट देखी जा रही है, तब स्वामी जी के विचार प्रमाणिक हो जाते है किस प्रकार संतुलन बनाए रखना आवश्यक है।  स्वामी विवेकानन्द और स्व का भाव  स्वामी विवेकानंद का दृष्टिकोण केवल पुनरुत्थानशील भारत का नहीं था, बल्कि एक ऐसे राष्ट्र का था जो अपनी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत को अपनी मुख्य शक्ति के रूप में स्वीकार करे। उनकी वाणी आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जब भारतीय परंपराओं को संरक्षित और पुनर्जीवित करने की आवश्यकता पहले से अधिक महसूस की जा रही है। स्वामी विवेकानंद ने एक बार कहा था, “प्रत्येक राष्ट्र की अपनी नियति होती है, प्रत्येक राष्ट्र का एक संदेश होता है, प्रत्येक राष्ट्र का एक मिशन होता है।” उनका भारत के लिए दृष्टिकोण इसकी समृद्ध सांस्कृतिक और आध्यात्मिक परंपराओं में निहित था, जो उन्होंने राष्ट्र की शक्ति का आधार माना। उन्होंने कहा था, “भारत, हमारी मातृभूमि, धर्म के आधार पर खड़ी है, धर्म ही इसकी रीढ़ है, धर्म ही वह चट्टान है जिस पर इसका सम्पूर्ण जीवन आधारित है।” वे मानते थे कि भारतीय मूल्यों और परंपराओं को अपनाना राष्ट्र पुनरुद्धार के लिए आवश्यक है। स्वामी जी ने इस बात पर जोर दिया कि स्वदेशी जीवन शैली केवल बाहरी अभ्यासों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक आंतरिक आध्यात्मिक और नैतिक ढांचे का निर्माण करती है। उन्होंने दृढ़ता से विश्वास किया कि सच्ची प्रगति पश्चिमी सभ्यता की अंधी नकल में नहीं, बल्कि हमारे पारंपरिक ज्ञान, आत्मनिर्भरता और स्वदेशी प्रणालियों के पुनरुद्धार में है। वे हमें याद दिलाते थे कि “हम केवल दूसरों की नकल करके स्वयं को विकसित नहीं कर सकते। मात्र नकल करना कमजोरी का स्रोत है, क्योंकि यह हमारी सच्ची प्रकृति को बाधित करता है।” उनका भारतीय जीवन शैली का आह्वान केवल दर्शन तक सीमित नहीं था, बल्कि व्यावहारिकता से भी जुड़ा हुआ था। वे आत्मनिर्भरता और शिक्षा को सर्वोपरि मानते थे। उन्होंने कहा था,“भारत को उठाना है, गरीबों को भोजन देना है, शिक्षा को फैलाना है और धर्म के आडंबर को समाप्त करना है।” यह कथन इस बात को रेखांकित करता है कि सच्चा विकास तभी संभव है जब समाज के प्रत्येक वर्ग का उत्थान हो और यह अपने स्वदेशी मूल्यों से जुड़ा रहे। स्वामी दृढ़ता के साथ कहते थे कि भारत की आध्यात्मिक संपत्ति उसकी सबसे बड़ी पूंजी है और इसे केवल भौतिक प्रगति के लिए खो देना विनाशकारी होगा और“भारतीय संस्कृति व्यक्ति के जीवन को एक संपूर्ण इकाई मानती है और धर्म और राजनीति में कोई भेदभाव नहीं करती।”उन्होंने स्वदेशी जीवन शैली को राष्ट्रीय एकता और उत्थान का साधन माना। अमेरिका से लौटने के तत्पश्चात स्वामी विवेकानंद ने देशवासियों से आह्वान करते हुए कहा था- नया भारत निकल पड़े मोची की दुकान से, भड़भूँजे के भाड़ से, कारखाने से, बाजार से, निकल पडे झोंपड़ियों से, जंगलों से, पहाड़ों से, खेत-खलियानों से और पुनः भारत माँ को विश्वगुरु के पद पर आसीन कर दे। वर्तमान में हम सबका भी मानना यही है कि जनभागीदारी ही हमे विकसित भारत के महान लक्ष्य को पूरा करेने के लिए प्रेरित करेगी। वे पारंपरिक उद्योगों और हस्तकला को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता पर बल देते थे ताकि भारत पूरी तरह से विदेशी विकास मॉडल पर निर्भर न हो। भारतीय शिक्षा प्रणाली का पुनरुद्धार भारत के भविष्य की कुंजी है। वे औपनिवेशिक शिक्षा प्रणाली की आलोचना करते थे क्योंकि यह भारतीयों को उनकी जड़ों से दूर कर रही थी। उन्होंने कहा था,“जब तक भारत की जनता शिक्षित नहीं होगी, उनका भरण-पोषण नहीं होगा और उनकी देखभाल नहीं की जाएगी, तब तक कोई भी राजनीतिक विचारधारा सफल नहीं हो सकती।” उन्होंने आत्म-विश्वास की शक्ति पर जोर देते हुए कहा था,“लोगों को स्वयं में विश्वास करना चाहिए, क्योंकि अंग्रेजों और हममें क्या अंतर है? अंतर केवल यह है कि अंग्रेज अपने ऊपर विश्वास करते हैं, और हम नहीं।”उन्होंने प्रत्येक भारतीय को अपनी विरासत पर गर्व करने और एक आत्मनिर्भर, आत्मविश्वास से भरे राष्ट्र के निर्माण की दिशा में कार्य करने के लिए प्रेरित किया। आज जब हम आधुनिकता की जटिलताओं से जूझ रहे हैं, स्वामी विवेकानंद की स्वदेशी जीवन शैली पर दिया गया उपदेश अत्यधिक प्रासंगिक हो जाता हैं। उनका आध्यात्मिक शक्ति, आर्थिक आत्मनिर्भरता और शैक्षिक सशक्तिकरण का संदेश एक प्रकाश स्तंभ के रूप में कार्य करता है।  

 

स्वामी विवेकानन्द और नागरिक कर्तव्य  

ऋग्वेद मे कहा गया है जो व्यक्ति अपने कर्तव्य में नियुक्त होकर कर्म करता है, वही धार्मिक होता है। "धार्मिकः कुरुते कर्म यः स्वधर्मे नियुक्तः" (ऋग्वेद ३.२१.३) इसलिए निष्पाप भाव से कर्तव्य का निर्वहन करते रहना चाहिए। स्वामी विवेकानंद आध्यात्मिक गुरु के साथ ही प्रबुद्ध विचारक भी थे, जिनके विचारों ने भारत के सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों को गहराई से प्रभावित किया। उनके दर्शन में नागरिकों के कर्तव्य, समाज के प्रति दायित्व और राष्ट्र निर्माण की भावना का विशेष स्थान था। उनका मानना था कि प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य है कि वह अपने राष्ट्र की उन्नति में सक्रिय योगदान दे और सामाजिक उत्तरदायित्व का निर्वहन करे। यह न केवल व्यक्तिगत उन्नति के लिए आवश्यक है बल्कि राष्ट्रीय समृद्धि और विश्व कल्याण के लिए भी महत्वपूर्ण है।  स्वामी विवेकानंद ने हमेशा आत्मनिर्भरता और स्वावलंबन पर जोर दिया। वे मानते थे कि जब तक व्यक्ति स्वयं आत्मनिर्भर नहीं बनेगा, तब तक वह समाज और राष्ट्र की उन्नति में योगदान नहीं कर सकता। उन्होंने कहा था -"जो स्वयं अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो सकता, वह दूसरों को कैसे खड़ा करेगा?" स्वावलंबन का यह सिद्धांत आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जब हम आत्मनिर्भर भारत जैसी पहल की ओर अग्रसर हो रहे हैं। प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य है कि वह अपने श्रम और कौशल के माध्यम से न केवल अपना जीवन स्तर सुधारें बल्कि राष्ट्र की प्रगति में भी योगदान दें।  विवेकानंद ने शिक्षा को राष्ट्र के विकास का मूल आधार माना। उनके अनुसार शिक्षा केवल किताबी ज्ञान तक सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि उसमें चरित्र निर्माण, नैतिकता और सेवा का भाव भी समाहित होना चाहिए। वे कहते थे— "शिक्षा वह नहीं है जो सिर्फ किताबों से प्राप्त की जाए, बल्कि वह है जो आत्मा के विकास में सहायक हो।"  वर्तमान के संदर्भ में, जब शिक्षा प्रणाली में सुधार की आवश्यकता महसूस की जा रही है, उनके विचार हमें यह सीख देते हैं कि शिक्षा का उद्देश्य केवल रोजगार पाना नहीं, बल्कि समाज के लिए एक आदर्श नागरिक बनना भी होना चाहिए।     स्वामी विवेकानंद ने निःस्वार्थ सेवा को नागरिक कर्तव्य के रूप में स्थापित किया। वे मानते थे कि सेवा ही सच्चा धर्म है और समाज के प्रत्येक व्यक्ति का यह दायित्व बनता है कि वह न केवल अपनी भलाई के लिए बल्कि पूरे समाज के कल्याण के लिए कार्य करे। उन्होंने कहा था— "जब तक लाखों लोग भूखे और अज्ञानी हैं, तब तक मैं उस प्रत्येक व्यक्ति को देशद्रोही मानूंगा जो उनकी सहायता नहीं करता।" यह विचार हमें आज भी प्रेरित करता है कि हमें समाज के वंचित और पिछड़े तबके के उत्थान के लिए कार्य करना चाहिए, जिससे समावेशी विकास सुनिश्चित हो सके।  स्वामी विवेकानंद का दृढ़ विश्वास था कि विभिन्न धर्मों, संप्रदायों और जातियों के लोगों को आपसी प्रेम और सौहार्द के साथ रहना चाहिए। उन्होंने 1893 में शिकागो धर्म संसद में अपने ऐतिहासिक भाषण के दौरान कहा था— "हम न केवल सभी धर्मों को सहन करते हैं, बल्कि हम यह मानते हैं कि सभी धर्म सत्य हैं।"  विवेकानंद का मानना था कि व्यक्ति का परम कर्तव्य अपने राष्ट्र की सेवा करना है। वे कहते थे—  "तुम्हें अपने राष्ट्र की सेवा करने के लिए संन्यासी बनने की जरूरत नहीं, बल्कि एक कर्मयोगी बनो और अपने कार्य को पूरी निष्ठा से करो।" उनका संदेश हमें यह सिखाता है कि सशक्त राष्ट्र वही बन सकता है, जहां नागरिक अपने कर्तव्यों का निष्ठापूर्वक पालन करें। आत्मनिर्भरता, सेवा, शिक्षा, सहिष्णुता और राष्ट्रीय एकता के उनके विचार आधुनिक समाज को दिशा देने के लिए अत्यंत उपयुक्त हैं।   आज जब भारत आत्मनिर्भरता, समावेशी विकास और वैश्विक नेतृत्व की ओर बढ़ रहा है, विवेकानंद के विचार हमें यह प्रेरित करते है कि हम अपने कर्तव्यों को समझें और राष्ट्र निर्माण में महति भूमिका निभाएं।  

 स्वामी विवेकानंद और पर्यावरण  

पर्यावरण हमारे जीवन का आधार है। यह हमें वायु, जल, भोजन और आश्रय प्रदान करता है लेकिन हमारी गतिविधियों के कारण पर्यावरण की स्थिति गंभीर होती जा रही है। विश्व में वनस्पति क्षेत्रफल 30.8% है (विश्व बैंक, 2022) परन्तु प्रतिवर्ष 13 मिलियन हेक्टेयर की कमी हो रही है (फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गनाइजेशन, 2022). विश्व में 9 में से 7 लोग वायु प्रदूषण से प्रभावित हैं (विश्व स्वास्थ्य संगठन, 2022) वायु प्रदूषण से प्रतिवर्ष 7 मिलियन लोगों की मृत्यु होती है (विश्व स्वास्थ्य संगठन, 2022). विश्व में 80% जल प्रदूषण मानव गतिविधियों से होता है (संयुक्त राष्ट्र, 2022) जल प्रदूषण से प्रतिवर्ष 8.4 मिलियन लोगों की मृत्यु होती है (विश्व स्वास्थ्य संगठन, 2022). इन परिस्थित मे स्वामी विवेकानंद का विचार प्रासंगिक हो जाता है। स्वामी जी पर्यावरण को केवल एक संसाधन के रूप में नहीं देखते थे बल्कि इसे ब्रह्मांडीय व्यवस्था (ऋत) का एक दिव्य अभिव्यक्ति मानते थे। उनका मानना था कि मानवता और प्रकृति के बीच गहरा संबंध है और मानव को प्रकृति पर प्रभुत्व जमाने के बजाय उसके साथ सामंजस्य स्थापित करना चाहिए। उन्होंने कहा था, "जल का धर्म उसकी नमी है, शहद का धर्म उसकी मिठास है, फूल का धर्म उसकी सुगंध है, वायु का धर्म उसका सांस लेना है, अग्नि का धर्म उसकी ऊष्णता है, और किसी स्थान का धर्म उसमें निहित पवित्र शक्ति को बनाए रखना है।" यह विचार प्रकृति और मानवता की आपसी निर्भरता को दर्शाता है। स्वामीजी ने इस बात पर बल दिया कि पर्यावरणीय क्षरण केवल एक भौतिक समस्या नहीं है, बल्कि यह एक नैतिक और आध्यात्मिक संकट भी है। उन्होंने चेतावनी दी थी कि यदि मानव जाति प्रकृति के संतुलन का सम्मान नहीं करेगी, तो परिणाम अराजकता के रूप में सामने आएंगे। उन्होंने कहा था, "चूंकि (पर्यावरणीय) समस्याओं की जड़ें मुख्य रूप से धार्मिक हैं, तो समाधान भी मूल रूप से धार्मिक ही होना चाहिए।" स्वामी विवेकानंद के अनुसार, धर्म (धार्मिक कर्तव्य) केवल मानव संबंधों तक सीमित नहीं था बल्कि यह प्रकृति की ओर भी विस्तारित होता था। वे कहते थे कि विकास प्रकृति के विनाश की कीमत पर नहीं होना चाहिए। उन्होंने कहा था, "नैतिक मूल्य स्थायी अस्तित्व, प्रगति, संरक्षण और मानव जीवन के निरंतरता के लिए मूल शक्ति हैं।" उनका संदेश स्पष्ट था: विकास को प्राकृतिक और आध्यात्मिक शक्ति के संसाधनों को नष्ट किए बिना आगे बढ़ना चाहिए ताकि आने वाली पीढ़ियाँ भी इनका आनंद ले सकें। स्वामी विवेकानंद का संदेश सतत विकास की अवधारणा से मेल खाता है। उनका दर्शन महात्मा गांधी के इस सिद्धांत के अनुरूप है कि "प्रकृति सभी की आवश्यकताओं को पूरा करने में सक्षम है, लेकिन किसी के लालच को पूरा करने में नहीं।" वे सादगी, मितव्ययिता और प्रकृति के प्रति श्रद्धा को अपनाने का आग्रह करते थे। उन्होंने कहा था, "मनुष्य का अंतिम लक्ष्य ज्ञान प्राप्त करना है... सुख और आनंद अल्पकालिक हैं। यह सोचना कि सुख ही अंतिम लक्ष्य है, एक बहुत बड़ी भूल है।" यह विचारधारा उपभोग में संतुष्टि खोजने के बजाय आध्यात्मिक ज्ञान और आत्म-संयम पर बल देती है। स्वामीजी के दृष्टी मे पर्यावरण चेतना को विकसित करने में शिक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि जब तक लोगों में पारिस्थितिक जागरूकता का संचार नहीं होगा, तब तक प्रकृति और मानवता के बीच संतुलन बहाल नहीं हो सकता। "उठो, जागो और जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए, तब तक मत रुको।" यह केवल आध्यात्मिक जागरूकता का आह्वान नहीं है, बल्कि यह पर्यावरण चेतना का भी संदेश है। यह हमें अपने कार्यों की ज़िम्मेदारी लेने और एक सतत भविष्य के लिए कार्य करने के लिए प्रेरित करता है। उनकी शिक्षाएँ हमें याद दिलाती हैं कि पर्यावरण संरक्षण कोई आधुनिक आवश्यकता नहीं है, बल्कि यह भारतीय परंपरा में निहित एक प्राचीन कर्तव्य है। वे मानते थे कि प्रकृति कोई वस्तु नहीं है जिसका दोहन किया जाए, बल्कि यह एक पवित्र सत्ता है जिसे आदर और रक्षा की आवश्यकता है। वे कहते थे,कि  "तुम, शरीर, मन, या आत्मा के रूप में एक स्वप्न हो, लेकिन जो तुम वास्तव में हो, वह अस्तित्व, चेतना और आनंद है। तुम इस ब्रह्मांड के ईश्वर हो। तुम संपूर्ण ब्रह्मांड की रचना कर रहे हो और उसे अपने भीतर समेट रहे हो।" यह वाक्य मानवता और प्रकृति के लिए दृष्टिकोण आज पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक है। एक ऐसी दुनिया में जहां अभूतपूर्व पर्यावरणीय चुनौतियाँ हमारे सामने हैं, उनका संदेश आत्म-अनुशासन, नैतिक जीवन और प्रकृति के प्रति श्रद्धा का मार्ग प्रशस्त करता है। यदि हम वास्तव में उनकी विरासत का सम्मान करना चाहते हैं, तो सतत रूप से जीवन जीना, प्रकृति का सम्मान करना, और यह समझना कि हमारा अस्तित्व पर्यावरण की भलाई से अविभाज्य रूप से जुड़ा हुआ है। स्वामीजी की पर्यावरण के प्रति के अनूठा प्रेम और दृष्टी वर्तमान मे भारतवर्ष ही नही अपितु विश्व संदेश दिया है। स्वाधीनता की शताब्दी पर भारत विश्व के कौन से पायदान पर होगा इसके लिए चर्चा का दौर चल पड़ा है, आज विकसित भारत@2047 पर भारत का प्रत्येक वर्ग विचार करके अपने योगदान को सुनिश्चित कर रहा है। इस समय को ईश्वरीय संयोग कहे यह देश के लिए अपने जीवन को आहूत कर देने वाले महापुरुषों का इच्छारूपी आशीर्वाद! शताब्दी की ओर बढ़ रहे इन ढाई दशक में भारत विश्व के सर्वाधिक युवा आयु का देश भी होगा । स्वाधीनता के आंदोलन में जहाँ भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, चंद्रशेखर आजाद, मदनलाल ढींगरा, अशफ़ाक़ उल्ला ख़ान , सावरकर, सुभाष चन्द्र जैसे असंख्य युवाओ ने अपना बलिदान दिया तो आज भारत को विश्व गुरु बनने के लिए देश के जीने का अवसर आज के युवाओ के सामने है, उनके सामने है कभी स्वामी विवेकानंद द्वारा भारत के लिए जीने-मरने के लिए मांगे गए सौ युवक बनने का अवसर। कोरोना काल में भारत ने विश्व को यह दिखाया है कि संकटों से विश्व को निकालने का साहस किसी महाशक्ति के पास नहीं है अपितु  

अयं बंधुर्यन्नेति गणना लघुचेतसाम् |  उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥  

केवल एक श्लोक मात्र नहीं है भारत ने विश्व को संकट ने निकाल कर समाधान का मार्ग दिखाया और यह भी दिखाया की सीमाओं में बंटे विश्व को परिवार भाव का संदेश कैसे दिया जा सकता है ।  स्वामी विवेकानंद ही भारत है उनके जीवन में भारत का वो आत्मविश्वास है जिसकी आज सबसे अधिक आवश्यकता है, जिस युवा शक्ति पर भारत के विकास का आधार हम आश्वासन नेत्रों ने कर रहे है वह युवा मानसिक अवसाद ,नशा, सोशल मीडिया मंचों के दुरूपयोग जैसे प्रश्नो के भंवरजाल में फँसा दिखा रहा है वही अनेकों उदाहरण भारत का गर्व बनने वाले खेल,नवाचार (startup), उद्योजकता से जुड़े युवाओ के भी है। स्वामी विवेकानंद का जीवन ही हमे आज की समस्याओ से निकाल कर भारत को विकसित और विश्वगुरु बनने का मार्ग प्रशस्त कर सकता है और अपने कर्तव्यों का स्मरण भी करवाता है। बिले, वीरेश्वर, नरेन, नरेन्द्रनाथ से विवेकानंद बनने की यात्रा ही ढाणी, गांव, शहर के भारत बनने की यात्रा है।

(अश्विनी शर्मा, क्षेत्रीय संगठन मंत्री, अभाविप)